Thursday 19 January 2017

मेरी लिखी किताब

तुम्हे पसंद है ये क्या,
मेरी लिखी किताब है.
इसी में ज़िक्र है ज़रा,
के सिर्फ एक ख्याल है.
ख़याल यूँ के मैं अगर,
नहीं मिलूं कभी तुम्हे,
किताब हो किताब फिर,
या सिर्फ ज़िक्र-ए-हाल है.

शुरू नहीं है दास्ताँ,
अभी से फिर भी ख़त्म है.
ना जाने क्यूँ लगे मुझे,
न अब कोई भी जंग है.

यकीं करो ज़रा मेरा,
यहीं मेरा जहान था.
चलेगा किस्सा दूर तक.
अभी मुझे गुमान था.

अभी शुरू हुआ यहीं,
सफ़र तुम्हारा बिन मेरे.
यहीं खड़ा था मैं अभी,
के कट रहे थे दिन मेरे.

अजब किसम के दौर थे,
दरख़्त, शेर, रानियाँ,
के शौक़ ही कुछ और थे
मैं लिख रहा कहानियां.

अजब सा मोड़ आ पड़ा,
मेरी ही एक कहानी में,
ठहर सहम के रुक गया,
पड़ा मैं परेशानी में.

रुको ज़रा, इधर सुनो,
आवाज़ थी एक ओर से.
ठिठक मैं देखता रहा,
परी खड़ी थी मोड़ पे.

नज़र मेरी, वहीं पड़ी,
परी तुम्ही, तुम्ही परी,
“आग है वहीँ कहीं.”
तुम बोलती डरी-डरी.

मैं रुक गया, डरा हुआ,
“रुको नहीं, डरो नहीं,”
तुम हँस पड़ी, वहीं खड़ी,
“मै कह रही थी ये नहीं.”

कहानी ख़त्म हो गयी,
वहीं मेरी, वहीं मेरी.
शुरू हुई फिर ज़िन्दगी,
तेरी मेरी, मेरी तेरी.

सुनो ज़रा सा और भी,
कहूँ मैं बात ये पूरी.
के रास्ते के मोड़ से,
अलग ही दौर था शुरू.
बदल गया था रासता
के मैं था तुमसे रूबरू.

शरम नहीं, भरम नहीं,
परी ये कोई और थी.
के पंख इसके आग थे,
ये बात करने गौर थी.

हंसी हंसी में खेल के,
वादा ये मुझसे कर गयी.
ना जान के भी जानकर
ये रूह मेरी भर गयी.

मेरी लिखी किताब का,
हर लफ्ज़ तुम से जल गया.
ये जिस्म इक लिबास है,
मैं खुद तुम्ही में ढल गया.

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